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Kapkot : कपकोट में 200 साल से चलती आ रही होली गायन की परम्परा, बुजुर्गों समेत युवाओं में भी जोश

कपकोट में होली गाते हुए

102 वर्षीय नारायण सिंह कपकोटी बताते हैं कि यह होली गायन की परंपरा पूर्वजों के समय जब मथुरा से चीर लेकर आए तब से अखाड़े में ही चीर बंधन होता आया है

इन दिनों देशभर में रंगों का त्यौहार होली बड़ी धूमधाम से मनाई जा रही है। बीते वर्षों की भांति इस वर्ष भी बागेश्वर जनपद के कपकोट में काफी हर्षोल्लास के साथ होली गायी जा रही है। आपको बता दें कि कपकोट गांव में होली का चीर बंधन 200 वर्ष पहले से आणु में स्व. राम दत्त जोशी वर्तमान में उनके पौत्र रमेश जोशी के आंगन जिसको "होली का अखाड़ा" नाम दिया है पर होता आया है। स्थानीय बुजुर्ग नारायण सिंह कपकोटी (102 वर्ष) बताते हैं कि इसका कोई लिखित इतिहास नहीं है पूर्वजों के समय जब मथुरा से चीर लेकर आए तब से अखाड़े में ही चीर बंधन होता आया है। यहां पर चीर बंधन के बाद बैठक होली गायन शुरू होती है। आणू के जोशी परिवार से शुरू होकर उपाध्याय परिवार के बाद चखतरी बिष्ट परिवार, भंडारी गांव, बुधेश्वर मंदिर, पुल बाज़ार, सिलकानी, धौलाणी ....होते हुए कपकोट गांव में बैठक होली गायन होता है। 

चतुर्दशी के दिन शिवालय मंदिर से शुरू होकर पनौरा स्थित ईश्वरीय माई मंदिर में होली गायन होता है। पुरातन काल से ही पनौरा स्थित यह मंदिर सामुहिक होली गायन और मिलन का मुख्य पड़ाव बना हुआ है। कपकोट गांव के तोक दूणी, धारखोल, सुलटुई, पनौरा, कनयूटी सहित जिस परिवार में भी समयाभाव के कारण होलियार बैठक होली नहीं कर पाते थे वो सभी परिवार टीका-भेंट मंदिर में लाकर माई को चढ़ाते थे और  चीर की डोरी बंधन करते थे। 78 वर्षीय विपिन चंद्र जोशी बताते हैं कि पुराने समय मे कपकोट में कार्यरत सरकारी कर्मचारी भी पनौरा स्थित इसी मंदिर शामिल होकर होली पर्व की परंपरा निभाते थे। 68 वर्षीय अध्यापक दयाल चंद्र जोशी बताते हैं कि पहले रात्रि होली गायन की परंपरा भी थी जो वर्तमान में कुछ परिस्थितियों के कारण बंद हो गई है। 

होली गायन के कोई लिखित बोल नहीं हैं लेकिन होली के बोल बनाने में पूर्व में जैसे स्व. जनार्दन जोशी, खीमानंद जोशी एवं वर्तमान में बसंत बल्लभ जोशी, विपिन जोशी, दयाल जोशी दक्ष माने जाते हैं।  होली के बोल परंपरा से ही शिव, कृष्ण और राम की जीवन लीलाओं पर आधारित रहे हैं। 

"शिवके मन माही बसे काशी"....

"शिव गंग गई जगतारन को"...

"कृष्ण मुरारी के दर्शन को जब विप्र सुदामा आये लला"...

"अवध भयो अवतार हरि"...

समय के अनुसार इसमें कई बदलाव आ रहे हैं। वर्तमान में पूरे तोक की बैठक होली मंदिर या किसी तय जगह पर सामुहिक तौर पर होने लगी है। केवल चीर घर घर घुमाया जाता है। चीर बंधन के साथ अखाड़े से शुरू होकर बैठक होली अखाड़े में ही समाप्त होती है। क्षेत्रीय बोली में इसको "चीर लग गईं" कहते हैं जिसका अर्थ है होलिका दहन हो गया। विपिन चंद्र जोशी बताते हैं कि चीर को हमारे पहाड़ों में मां भगवती का ध्वज माना गया है। इसकी डोरी को कुछ समय पूर्व तक धार्मिक आस्था में विश्वास करने वाले लोग अपशकुन व बुरी नजर से बचने के लिए प्रयोग करते थे।  जिस लकड़ी पर चीर बांधा जाता है उसके हिस्से करके धार्मिक विधि-विधान से आहुति दी जाती है।